नई दिल्ली:
शिया सुन्नी की कई किताबों के अनुसार हजरत अली की मां हजरत फातेमा बिन्ते असद जब नवें महीने गर्भ अवस्था में थी तब वो पवित्र काबा के पास गई थीं और ईश्वर से दुआ कर रही थीं. फातिमा बिन्त असद आराम करने के लिए काबा की दीवार के सहारे झुक गईं और तभी चमत्कारिक रूप से दीवार खुल गई. फातिमा बिन्त असद अंदर गईं और दीवार उनके पीछे बंद हो गई. इसके बाद चश्मदीदों ने ये सब देखा तो दरवाजा खोलने लगे और धीरे धीरे पूरे मक्का में ये खबर फैल गई लेकिन फिर सबने सब्र किया और इसे अल्लाह की मर्जी समझते हुए रुक गए.
तीन दिन तक बिन्ते असद काबे में रहीं और तीसरे दिन हजरत अली की विलादत (जन्म) हुई. इसके बाद वो बाहर आईं और दरार बंद हो गई. साथ ही जब हजरत मोहम्मद साहब ने हजरत अली को गोद में लिया तब जाकर हजरत अली ने अपनी आंख खोली. वहीं आजतक काबे के दीवार पर वो दरार मौजूद है. इस दरार से एक ऐसी खुशबू आती है जो काबा के किसी और हिस्से में नहीं है.
साथ ही हजरत अली ने जंग-ए-खैबर,जंग-ए-बद्र,जंग-ए-खंदक आदि इस्लाम के लिए जंग जीती. साथ ही हजरत अली मोहम्मद साहब के चाचाजात भाई तो थे ही,वहीं उनकी बेटी बीबी फातिमा जहरा के शौहर भी थे. हजरत अली को ईद-ए-गदीर के बाद मुस्लिम पहला इमाम मानने लगे,वहीं मोहम्मद साहब के निधन के बाद सुन्नी मुस्लिम उन्हें अपना चौथा खलीफा मानते हैं तो वहीं शिया मुस्लिम हजरत अली को पहला इमाम मानते हैं.
वहीं,यूपी के सुल्तानपुर के अमहट में भी पिछले 10 साल से अली डे मनाया जा रहा है,जिसमें खास बात ये है कि इस प्रोग्राम में सिर्फ मुस्लिम ही नहीं बल्कि नॉन मुस्लिम भी शिरकत करते हैं. इसमें हजरत अली के इंसानियत के विचारों को भी याद किया जाता है. इस साल भी अमहट में अली डे मनाया गया. इस प्रोग्राम में हजरत अली की जिंदगी पर रोशनी डाली गई जिसमें बताया गया कि किस तरह हजरत अली दूसरे धर्म के लोगों के साथ भी हमेशा इंसानियत दिखाते थे. इसमें वो उन्हें इंसानियत के नाते अपना भाई मानते थे. वहीं इस प्रोग्राम में मुस्लिमों के कई वरिष्ठ स्कॉलर,मौलाना तो आए ही,साथ ही नॉन मुस्लिम जैसे जैन धर्म के डॉ. राज जैन,ब्राह्मण गुलशन पाठक आदि लोग भी शामिल हुए.
ये प्रोग्राम गदीरी युवा फाउंडेशन के जरिए कराया जाता है,जिसमें क्विज कंपीटिशन आदि भी कराया गया और अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. वहीं हर साल 13 रजब के दिन मुसलमान जश्न मनाते हैं. कई मस्जिदों को सजाया जाता है. दरगाहों में कव्वाली का आयोजन किया जाता है. खाने-पीने का इंतजाम किया जाता है. मुस्लिम समुदाय के लोग एक दूसरे की दावत करते हैं और खुशियां बांटते हैं.
हजरत अली ने 656 ईस्वी से लेकर 661 ईस्वी तक शासन किया. हजरत अली को उनकी बहादुरी,इंसाफ,ईमानदारी और नैतिकता के लिए पहचाना जाता है. ऐसा माना जाता है कि उनकी हुकूमत के दौरान कोई भी भूखा नहीं सोया और किसी के साथ अन्याय नहीं हुआ. हजरत अली के कई ऐसे संदेश हैं,जिन्हें लोग अपनी जिंदगी में अपनाकर जिंदगी को आसान और बेहतर बना सकते हैं. उन्होंने अपनी जिंदगी में लोगों को इंसानियत का पाठ पढ़ाया.
हजरत अली को पैगम्बर मोहम्मद साहब बहुत चाहते थे. उन्होंने तभी गदीर के मैदान में भी हजरत अली को अपना जानशीन बनाया था. वहीं हजरत अली और मोहम्मद साहब की बेटी जनाबे फातिमा जहरा के दो बेटे इमाम हसन और इमाम हुसैन भी थे जो शिया मुस्लिमों के दूसरे और तीसरे इमाम भी हैं. इन्हीं दोनों को हजरत मोहम्मद साहब ने जन्नत का सरदार भी कहा है.
उनके इस दुनिया के जाने के बाद सड़कों पर रहने वाले लोग भी उन्हें बहुत याद किया करते थे क्योंकि वो हर यतीमों,गरीबों को रात में खाना दिया करते थे और जब कोई उनसे नाम पूछता था तो कहते थे कि एक भाई दूसरे भाई को खाना दे रहा है.